Lekhika Ranchi

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राष्ट्र कवियत्री ःसुभद्रा कुमारी चौहान की रचनाएँ ःबिखरे मोती



मछुए की बेटी सुभद्रा कुमारी चौहान

चौधरी और चौधराइन के लाड़ प्यार ने तिन्नी को बड़ी ही स्वच्छन्द और उच्छृङ्खल बना दिया था। वह बड़ी निडर और कौतूहल-प्रिय थी। आधी, रात, पिछली पहर, जब तिन्नी की इच्छा होती वह नदी पर जाकर नाव खोलकर जल-विहार करती और स्वच्छ लहरों पर खेलती हुई चन्द्रकिरणों की अठखेलियां देखती।
यही कन्या चौधरी की सब कुछ थी; किन्तु फिर भी आज तक चौधरी उसका विवाह न कर सके थे क्योंकि कन्या के योग्य कोई वर चौधरी को अपनी जात में न देख पड़ता था। इसीलिए तिन्नी अभी तक क्वांरी ही थी।
नदी के पार और उस पार से इस पार लाने का चौधरी ने ठेका ले रखा था। चौधरी की अनुपस्थिति में तिन्नी अपने पिता का काम बड़ी योग्यता से करती थी।
-आज इतनी जल्दी कहा जा रही हो तिन्नी?
-क्या तुम नहीं जानते?
-क्या?
-यही कि राजा साहब आज उस पार जायेंगे।
-कौन राजा साहब?
-तुम्हें यह भी नहीं मालूम?
-मैं आज ही तो आया हूं।
-और अब तक कहां थे?
-अपने घर।
तो जैसे मैं रात-दिन घाट पर ही तो बनी रहती हूं न? इसलिए मुझे सब कुछ जानना चाहिये और तुम्हें कुछ भी नहीं। तुम मुझे वैसे ही तंग किया करते हो! जाओ, अब मैं तुमसे बात भी नहीं करूंगी।
तिन्नी को चिढ़ाकर उसकी क्रोधित मुद्रा को देखने में युवक को विशेष आनन्द आता था। इसलिए वह प्राय: इसी प्रकार के बेसिर-पैर के प्रश्न करके उसे चिढ़ा दिया करता था। किन्तु आज तो बात जरा टेढ़ी हो गयी थी। तिन्न ने क्रोधावेश में यह प्रतिज्ञा कर ली थी कि अब वह युवक से बोलेगी ही नहीं। इसलिए मुंह फेरकर वह तेजी से घाट की ओर चल दी। युवक ने तिन्नी का रास्ता रोक लिया और बड़े विनीत और नम्र भाव से बोला-तिन्नी! सच बता दे मेरी तिन्नी! मैं तेरा डांड़ चला दूंगा, तेरा आधा काम कर दंूगा।
तिन्नी के क्रोधित मुख पर हंसी नाच गयी। युवक उसके साथ डांड़ चलायेगा, उसे एक साथी मिल जायेगा, इस बात को सोचकर उसे बड़ी प्रसन्नता हुई। वह बोली-सच कहते हो? मेरे साथ तुम डांड़ चलाओगे? देखा, बापू नहीं हैं, मैं अकेली हूं। यदि तुम सचमुच मेरे साथ डांड़ चलाने को कहो, तो फिर बताती हूं।
-सच नहीं तो क्या झूठ? मैं डांड़ जरूर चलाऊंगा, पर पहिले तुझे बताना पड़ेगा-युवक ने कहा।
-इधर अपने पास ही कोई रियासत है न? यहीं के राजा साहब नदी के उस पार शिकार खेलने जायंगे। महीना-पन्द्रह दिन का काम है मनोहर! खूब अच्छा रहेगा। खूब पैसे भी मिलेंगे। मैं तुम्हें भी दिया करुंगी। पर इतना वादा करो कि जब तक बापू न लौटकर आवें तुम रोज मेरे साथ डांड़ चलाया करोगे।
-यह कौन सी बात है तिन्नी? यदि तू मान जा तो मंै तेरे साथ जीवन भर डांड़ चलाने को तैयार हूं।
-तो जैसे मैंने कभी इंकार किया हो! नेकी और पूछ-पूछ! तुम मेरा डांड़ चलाओ और मैं इंकार कर दूंगी?
-तिन्नी, तो तू मूझसे ब्याह क्यों नहीं कर लेती? फिर हम दोनों जीवन भर साथ-साथ डांड़ चलाते रहेंगे।
क्षण भर के लिए तिन्नी के चेहरे पर लज्जा की लाली दौड़ गयी। किन्तु तुरंत ही वह संभलकर बोली- कहने के लिए तो कह गये। मनोहर! किन्तु आज मैं ब्याह के लिए तैयार हो जाऊं तो?
-तो मैं खुशी के मारे पागल हो जाऊं।
-फिर उसके बाद?
-फिर मैं तुम्हें रानी बनाकर अपने आपको दुनिया का बादशाह समझंू।
-अपने आपको बादशाह समझोगे, क्यों मनोहर? और मैं बनूंगी रानी। पर मैं रानी बनने के बाद डांड़ तो न चलाऊंगी, अभी से कहे देती हूं।
- तब मैं ही क्यों डांड़ चलाने लगा। मैं बनूंगा राजा, और तुम बनोगी मेरी रानी, फिर डांड़ चलाएंगे हमारे-तुम्हारे नौकर!
-अच्छा! यह बात है! कहकर तिन्नी खिलखिलाकर हंस पड़ी और दोनों हंसते हुए घाट की तरफ चले गए।
एक बड़ी नाव पर राजा साहब और उनके पुत्र कृष्णदेव अपने कई मुसाहिबों के साथ उस पर जाने के लिए बैठे। तिन्नी कई मछुओं और मनोहर के साथ डांड़ चलाने लगी। तिन्नी नाव भी खेती जाती थी और साथ ही मनोहर से हंस-हंसकर बातें भी करती जाती थी। वायु के झोंकों के साथ उड़ते हुए उसके काले घुंघराले बाल उसकी सुन्दर मुखाकृति को और भी मोहक बना रहे थे। कृष्णदेव उसके मुंह की ओर किस स्थिरता के साथ देख रहे हैं, इस ओर तिन्नी का ध्यान ही न था। किन्तु राजा साहब से पुत्र की मानसिक अवस्था छिपी न रही। युवा काल में उनके जीवन में कई बार ऐसे मौके आ चुके थे।
अब कृष्णदेव प्राय: प्रतिदिन ही जल-विहार के लिए नौका पर आते और डांड़ चलाने का काम बहुधा तिन्नी ही किया करती। कृष्णदेव के मूक प्रेम और आकर्षण ने तिन्नी को भी उनकी तरफ बहुत कुछ आकर्षित कर लिया था। जिस समय कृष्णदेव नौका पर आते, उस समय अन्य मछुओं के रहते हुए भी तिन्नी स्वयं ही नौका चलाती।
राजा साहब से कुछ छिपा न था। कुमार रोज जल-विहार के लिए जाते हैं, और तिन्नी ही नाव चलाया करती है, यह राजा साहब ने सुन लिया था। अतएव बात को इससे अधिक बढऩे देने के अभिप्राय से राजा साहब बिना शिकार खेले ही एक दिन अपनी रियासत को लौट गये। जाने को पिता के साथ कृष्णदेव भी गये; किन्तु उनका हृदय मछुए के झोपड़े में तिन्नी के ही पास छूट गया था। रियासत पहुंचकर कृष्णदेव सदा उदास और न जाने किन विचारों में निमग्न रहा करते। शायद उन्हें रह-रहकर मनोहर के भाग्य पर ईष्र्या होती थी। वह सोचते-मनोहर किस प्रकार तिन्नी के पास बैठकर नाव चलाया करता था। तिन्नी कैसी घुल-मिलकर हंसती हुई उससे बातें किया करती थीं। एक मामूली आदमी होकर भी मनोहर कितना सुखी है। काश! मैं भी एक मछुआ होता और तिन्नी के पास बैठकर नाव चला सकता-तो कितना सुखी होता?
किन्तु किसी से कुछ भी न कहते। हां, अब उन्हें आखेट से रुचि न थी। शतरंज के वे बहुत अच्छे खिलाड़ी थे; किन्तु अब मुहरों की ओर उनसे आंख उठाकर देखा भी न जाता। अध्ययन से भी उन्हें बड़ा प्रेम था। उनकी लायब्रेरी में विद्वान लेखकों की अच्छी-से-अच्छी पुस्तकें थीं; किन्तु उन पर अब इंचों धूल जम रही थी।
यार-दोस्त आते, घंटों छोड़छाड़ करते, किन्तु कृष्णदेव में तिल-भर का भी परिवर्तन न होता। उनके अन्तर्जगत में कितना भयंकर तूफान उठ रहा था, यह किसे मालूम था? कृष्णदेव अपनी वेदना चुपचाप पी रहे थे। किन्तु उनकी आंतरिक पीड़ा को उनकी शारीरिक अवस्था बतला रही थी। उनका स्वास्थ्य दिनों-दिन गिरता जा रहा था।
पिता से पुत्र की बीमारी छिपी न थी। वे सब जानते थे किन्तु वे चाहते यह थे कि बात किसी प्रकार दबी को दबी ही रह जाय, उन्हें बीच में न पडऩा पड़े। कृष्णदेव उनका इकलौता पुत्र था। पुत्र की चिंता उन्हें रात-दिन बनी रहती थी। तिन्नी के अनिन्दनीय रूप और चातुर्य ने राजा साहब को आकर्षित न किया हो, सो बात न थी। किन्तु थी तो वह आखिर मछुए की ही बेटी! राज साहब उससे कृष्ण देव का विवाह करते भी तो कैसे?
एक दिन राजा साहब कृष्णदेव के कमरे में गये। उस समय वह सोये हुये थे। आंखों से पास रोते-रोते गड्ढे से पड़ गये थे। चेहरा पीला-पीला और शरीर सूखकर कांटा-सा हो रहा था। जमीन पर ही एक चटाई के ऊपर बिना तकिये के, मखमली बिछौना पर सोने वाला उनका दुलारा कृष्णदेव, न जाने किस चिंता में पड़ा-पड़ा सो गया था। राजा साहब की आंखों में आंसू आ गये। वे कुछ न बोलकर चुपचाप कृष्णदेव के कमरे से बाहर निकल आये।
दूसरे ही दिन रियासत से तिन्नी समेत चौधरी का बुलौवा हुआ। उन्हें शीघ्र से शीघ्र उपस्थित होने की आज्ञा थी और साथ ही उन्हें लेने के लिए सवारी भी आई थी। इस घटना ने मुहल्ले भर में हलचल मचा दी। चौधरी बहुत घबराये। सोचा,''अवश्य ही मेरी अनुपस्थिति में इस उद्दंड लड़की ने कोई अनुचित व्यवहार कर दिया होगा। राजा साहब जरूर नाराज हैं, नहीं तो तिन्नी समेत लाये जाने के कारण ही क्या हो सकता है! मुहल्लेवाले सभी चौधरी को समयोचित सीख देते आये। अपनी-अपनी समझ के अनुसार किसी ने कुछ कहा, किसी ने कुछ। तिन्नी का हृदय कुछ और ही बोल रहा था। तिन्नी पिता के पास मोटर पर बैठने ही वाली थी, मनोहर ने आकर धीरे से तिन्नी से कहा- तिन्नी! कहीं राजकुमार ने तुम्हें अपनी रानी बनाने के लिए बुलाया हो तो?ÓÓ
-कुछ तुम मुझे अपनी रानी बनाते थे, कुछ राजकुमार बनायेंगे।
-तिन्नी! तुम सदा ही मेरे हृदय की रानी रही हो और रहोगी। आज ऐसी बातें क्यों करती हो?
-सो कैसे? बिना विवाह हुए ही मैं तुम्हारी या तुम्हारे हृदय की रानी कैसे बन सकती हूं? -तिन्नी ने रुखाई से पूछा।

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